गुजरे जमाने के अभिनेता और निर्देशक मनोज कुमार ने पूरा जीवन यह संदेश देने में लगा दिया कि देश प्रेम कितना महत्वपूर्ण है। पूरब और पश्चिम, उपकार और क्रांति जैसी फिल्मों में दमदार अभिनय से प्रशंसकों ने उन्हें ‘भारत कुमार’ कहना शुरू कर दिया था। 2015 में उन्हें प्रतिष्ठित फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। खुद के देशभक्ति की फिल्मों के नायक बनने के पीछे के कारणों को अपनी जुबानी बयां कर रहे हैं भारत कुमार.....
सन 1946-47 में मैं लाहौर में था। तब वहां आजाद हिंद फौज के जुलूस निकलते थे। उनके 3 बड़े सैनिक सहगल, ढिल्लों और शाहनवाज कैद थे। लाल किले में उन पर मुकदमा चल रहा था। नारा था- ‘लाल किले से आई आवाज, सहगल ढिल्लों और शाहनवाज।’ मैं भी उस जुलूस में नारे लगाता था। पुलिस ने मुझे भी पकड़ लिया। आधे पौने घंटे बाद डांट-डपट कर छोड़ दिया। घर पहुंचा तो पिताजी ने पूछा कि थानेदार का फोन आया था। क्या बात थी? मैंने उन्हें भी वह नारा सुना दिया। पिताजी ने पूछा भी कौन हैं यह लोग? मैंने कहा मुझे नहीं पता। तो उन्होंने मुझे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कहानी सुनाई। उस वक्त मेरी उम्र 9 साल थी। आजादी के दीवानों को लेकर वह मेरा पहला इंप्रेशन था, जो मेरे जहन में उस समय से ही रच-बस गया था, जो आगे मेरी फिल्मों में उतरकर आया।
बहरहाल, उसके बाद दंगे शुरू हो गए। पार्टीशन हो गया था। मेरे पिताजी उस समय लाहौर के उस इलाके के पीस कमेटी के प्रेसिडेंट थे। कई खूनी जख्मों को सहने के बाद हमारा परिवार खून से लथपथ दिल्ली पहुंच गया। पिताजी को दिल्ली रिफ्यूजी कैंप का भी प्रेसिडेंट चुना गया। फिर पता लगा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू कैंप आने वाले हैं। अगले दिन एक अंग्रेजी अखबार के फ्रंट पेज पर पंडितजी की फोटो थी और साइड में मेरे पिताजी की। अखबार में पंडित जी का बयान था- ‘मैं रिफ्यूजी कैंप गया था। वहां कैंप के प्रेसिडेंट ने कहा कि पंडित जी पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। बोलिए, आपको कितने जवान चाहिए? मैं तो खुद कैंप वालों को कुछ देने गया था पर उनके प्रेसिडेंट ने मुझे ही देने की पेशकश की तो मेरे जेहन में ख्याल आया कि यह जो लोग अपने घर-बार, खेत-खलिहान छोड़कर आए हैं, उनमें देशभक्ति का इतना जज्बा है तो हमारा मुल्क जरूर प्रगति करेगा।’ पंडित जी की यह बात भी मेरे जेहन में घर कर गई।
अगले दिन पिताजी मुझे लाल किला ले गए। वह 16 अगस्त का दिन था। नेहरू जी भाषण दे रहे थे। वे कुछ बोल रहे थे जिस पर लोग तालियां बजा रहे थे। मेरे पिताजी भी तालियां बजा रहे थे। मैं यह देख कर कुछ अजीब सा महसूस कर रहा था, क्योंकि एक दिन पहले मेरे पिताजी अपने छोटे भाई की मौत का गम मना रहे थे और अभी भाषण पर तालियां बजा रहे हैं। भाषण जब खत्म हुआ, तब पिताजी मुझे जामा मस्जिद ले गए। उन्होंने कहा- मत्था टेको। मैंने मना किया। कहा- यह तो मुसलमानों की जगह है। पिताजी ने कहा- नहीं बेटे पूजा का स्थान एक ही होता है। कोई हिंदू-मुस्लिम नहीं है। वह समय बुरा था जो हुआ।’ तब मैंने मत्था टेक दिया। उस वक्त पिताजी ने अगर यह नहीं किया होता, तो शायद मेरे दिल में मुसलमानों के लिए और इस्लाम के लिए मन में घृणा रहती। और वह भी नैरेटिव मेरी फिल्मों में झलकता, मगर ऐसा कभी नहीं हुआ।
- जैसा उन्होंने अमित कर्ण को बताया
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