चुनावी बहस में बेहद अहम मु्द्दों पर बात ही नहीं हुई, सीरिया में गृहयुद्ध और हॉन्गकॉन्ग में लोकतंत्र पर ट्रम्प-बाइडेन मौन

अमेरिका में दो प्रेसिडेंशियल डिबेट हुईं। और दोनों में कुछ शब्दों या कहें कई शब्दों का न इस्तेमाल हुआ, न जिक्र। जैसे- सीरिया, ह्यूमन राइट्स, ड्रोन्स, डेमोक्रेसी गैरबराबरी, तानाशाही, इजराइल, फिलिस्तीन, मिडल ईस्ट, वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन, ग्वांतनामो बे, यूरोपियन यूनियन, ब्रिटेन, ब्रेक्जिट, फ्रांस, इटली, हॉन्गकॉन्ग, अफ्रीका, साउथ अमेरिका, टेरेरिज्म, मल्टीलेटरल यानी बहुपक्षीय और अलायंस। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अमेरिकियों का दिमाग कितना सिकुड़ रहा है।

अफगानिस्तान का जिक्र भी नहीं
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अफगानिस्तान का जिक्र ही नहीं किया। एक ऐसा युद्ध प्रभावित देश जहां अमेरिका ने 2400 सैनिकों की जान गंवाई। और जहां 20 साल में अब तक 2 ट्रिलियन डॉलर खर्च हुए। हां, जो बाइडेन ने एक बार अफगानिस्तान का जिक्र जरूर किया। गौर से देखें तो यह अच्छा नहीं है। ट्रम्प तो हमेशा से खुद के प्रशंसक रहे हैं। वे पतझड़ को बसंत के नारंगी पत्तों के बीच छिपाने की कोशिश कर रहे हैं।

दोनों संभले नजर आए
इसमें कोई दो राय नहीं कि दूसरी डिबेट में ट्रम्प ने पहले के मुकाबले ज्यादा सभ्य व्यवहार किया। बाइडेन पोल्स में आगे चल रहे हैं। उन्होंने भी इसमें खुद को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। कुल मिलाकर दोनों संतुलित नजर आए। कुछ देर के लिए चीन के उभार और रूस की अड़ियल रवैये को देखिए। तानाशाही फिर बढ़ रही है। लोकतंत्र कमजोर हो रहे हैं और अफ्रीका में जनसंख्या विस्फोट के हालात हैं। महामारी के दौरान ग्लोबल लीडरशिप की कमी साफ नजर आई। पश्चिमी देशों में असमानता के मामले बढ़ रहे हैं। कई और मामले हैं। इनके साथ ही सोशल मीडिया का जिक्र भी होना जरूरी है। इसके जरिए नफरत कई गुना बढ़ चुकी है। आने वाले दशक में इसका असर दिखाई देगा।

अमेरिका फर्स्ट की बात नहीं हुई
सवाल यह है कि डिबेट्स के दौरान हमें क्या थीम दिखी या सुनाई दी। शायद कोई नहीं। टीवी पर एनालिसिस कर रहे लोगों ने नोट किया कि बाइडेन अपनी घड़ी की तरफ देख रहे थे। टीवी कैमरा की तरफ सीधे देखने से गुरेज कर रहे थे। ट्रम्प ने हंटर बाइडेन के मुद्दे पर डेमोक्रेट कैंडिडेट को घेरने की कोशिश की। ट्रम्प ने अमेरिका फर्स्ट की बात नहीं की।

इन मुद्दों का जिक्र तो होना चाहिए था
सीरिया में जारी सिविल वॉर में चार लाख लोग मारे जा चुके हैं। बचे हुए लोगों में से 80 फीसदी गरीबी में जी रहे हैं। 40 फीसदी बेरोजगार हैं। हॉन्गकॉन्ग और बेलारूस। यहां साहसी और जुझारू प्रदर्शनकारी लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें अमेरिका से समर्थन की उम्मीद है। वे आशा भरी नजरों से हमारी तरफ देख रहे हैं। मिडिल ईस्ट। इजराइल और फिलिस्तीन। जहां अमेरिकी डिप्लोमैसी के जरिए अमन बहाली की कोशिश हो रही है। यहां अमेरिकी फंड्स और लोग जुटे हुए हैं। इराक में कई अमेरिकी और वहां के स्थानीय लोग जान गंवा चुके हैं। इनका जिक्र होना चाहिए था।

फिर क्या हुआ
अमेरिकी दिमाग सिकुड़ रहे हैं और इसकी झलक व्हाइट हाउस से उठ रही आवाजों से मिलती है। सम्मान की बात नहीं होती। वहां से बस कहा जाता है। सच्चाई के लिए, साइंस के लिए कोई सम्मान नहीं है। फिर ये कैसी डिबेट थी। 70 साल से ज्यादा के दो व्यक्ति दुनिया को यह भरोसा नहीं दिला सके कि वे दुनिया की विचारधारा और आदर्शवाद में बदलाव की मदद करेंगे। यह बुनियादी रूप से बेइजज्जती या सम्मान न देने जैसा मामला है। दोनों कैंडिडेट्स के बीच जो बातें हुईं, उनके बारे में पहले से अनुमान था।

अमेरिकी समाज की झलक दिखी
डिबेट में अमेरिकी सोसायटी की झलक दिखी। ये समझ आया कि रचनात्मक विचार-विमर्श लगभग असंभव है। ट्रम्प ने हिंसा और बंटवारे के जरिए शासन किया। आम सहमित और लोगों तक पहुंचने की कोशिश नहीं की। नतीजा ये हुआ कि बहस भी आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित हो गई। मानवाधिकार हमेशा अमेरिका में मुद्दा और मिशन रहा। गैरबराबरी बढ़ रही है, इससे सामाजिक तानाबाना टूट रहा है। नाइंसाफी के आरोप लग रहे हैं। अमेरिकी सैनिक खतरों का सामना कर रहे हैं। अमेरिका को बनाने में उसके इतिहास, इमीग्रेशन और खुलेपन का भी योगदान है। ट्रम्प के दौर में हमारा सोच सीमित हुआ। यह खतरनाक है। अगर उन्हें चार साल और मिल गए तो अमेरिकी आईडिया खतरे में पड़ जाएगा। और आखिर में शायद इस डिबेट से सिर्फ ये पता लगता है कि हम कितने पीछे जा चुके हैं।



Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Donald Trump Vs Joe Biden 2020 Presidential Debates | Here's New York Times Latest Opinion On US Election


Post a Comment

0 Comments